"क्या आप तैयार हैं युवराज?"
एक बुज़ुर्ग सेवक ने कमरे के द्वार पर सर झुखाये खड़े होकर पूछा।
उनके ठीक सामने अपने कक्ष के आईने में अपने प्रतिबिम्ब को देखते हुवे एक 17-18 साल की आयु का लड़का था, जिसके गहरे काले केश थे, सूर्य सा चमकता तेज था मुख पर, और आज तो ये तेज एक असीम ख़ुशी से कारन बढ़ता हुवा प्रतीत हो रहा था।
उनकी लम्बी कद्द कथि मानो राजसी पोशाक को भी चार चांद लगाती हो। उस लड़के ने उनकी आवाज़ सुन एक मुस्कराहट के साथ जवाब दिया।
"जी काका, मैं तो सुबह से तयार ही हूँ। क्या वह लोग आ गए?"
किसी राजमहल में सेवकों को इतना ऊंचा दर्जा मिलना अक्सर नामुमकिन था लेकिन हम बात कर रहे हैं भारत की जहाँ सम्मान, संस्कार और संस्कृति अपने आप में बोहोत महत्व रखते हैं और हर व्यक्ति से इन तीनो का आदर बनाये रखने की आशा रखी जाती है।
युवराज ने जवाब की उत्सुकता में अपने कदम उस सेवक की ओर बढ़ाये और उनसे कुछ दूरी पर खड़े रहकर, उसी मुस्कान से उनकी ओर टकटकी लगा कर देखने लगे।
"जी, वोह लोग राज्य में दाखिल हो चुके हैं। बस कुछ ही क्षणों तक महल भी पहुँचते ही होंगे। आपको महाराज ने बुलाया है नीचे।"
सेवक ने अपना झुका हुवा सर ज़रा सा उठाया और युवराज को जवाब दिया।
युवराज ये जवाब सुन और बेसब्र हो उठे। उनकी इस उत्सुकता से ये पूरा महल परिचित था...न जाने कितने बर्सों से युवराज ने इस दिन की राह देखि थी। युवराज बच्चों की तरह मुंह फुला कर अपने पलंग पर जा गिरे और हाथ पैर झटकने लगे।
"अरे...अब हमसे और प्रतीक्षा नहीं होती। काका, आप तो जानते हैं न मैंने उन्हें कभी नहीं देखा है, आज मैं उनसे पहली बार मिलूँगा। मैं आज सबसे पहले उनका ही मुख देखना चाहता हूँ। पिताश्री की डाँट मुझे आज नहीं सुननी।"
वह बुज़ुर्ग अपनी बूढ़ी ,भारी सी आवाज़ में हसे और युवराज की ओर देखने लगे। वह उन्हें कुछ समझा पाते, उतने में ही महल में अतिथियों के आने की घोषणा होने लगी।
वह आवाज़ सुनते ही युवराज की आँखें किसी बेशकिमती मोती के समान चमक उठी। वह झट से अपने कमरे से बाहर निकले और भागते हुवे निचे की ओर चले गए। रास्ते में कौन है, कौन नहीं, उन्हें कोई फिक्र न थी।
जैसे ही नीचे पहुंचे तो पाया के सिंहासन पर बैठे थे उनके पिता, चंद्रदुर्घ के राजा, चन्द्रप्रकाश जी। लेकिन इस वक़्त उनके लिए कुछ भी मायने नहीं रखता था। उनकी नज़र जाकर रुकी राजदरबार के मध्य में खड़े एक वृद्ध दाम्पत्ति पर,
जाते ही वह उन दोनो के गले से लिपट गए।
"आप लोग आ गए…आप आ गए। नाना जी, नानी जी।"
युवराज के गले से लगते ही गौप्तीदोर की बड़ी महारानी श्रीमती राजेश्वरी जी का कलेजा ममता से पसीज गया। आँखों में आंसू भर आए पर साथ ही आयी एक मुस्कान भी। उन्होंने बड़े ही प्यार से अपना हाथ युवराज के सर पर रखा और गहरी सांस भरते हुवे बोली
"हाँ युवराज। हम आ गए।"
युवराज की सांसे फूल रही थी दौड़ने की वजह से। अपनी नानी की आवाज़ अपने कानो में पहली बार पड़ते ही वह भावुक हो उठे।
उनके रौंगटे खड़े हो चुके थे। उनके लिए यकीन करना मुश्किल था के यह सब हकीकत ही है।
कहीं ये सपना ही न निकले, इसी डर का भाव मात्र मन में लिए उन्होंने अपना सर महाराजा योगेंद्र और महारानी रागिनी की ओर उठाया और उनका मुख अपने जीवन में न जाने कितने बरसों बाद देखा। उनके लिए ये सब पहली बार जैसे ही था। जब वह उनसे आखरी बार मिले थे तब केवल 6 माह के थे और उस समय की कोई भी बात न उन्हें याद थी, और न ही राजा चंद्रप्रकाश चाहते थे के युवराज को वोह बातें कभी याद दिलाई जाएं।
"नानी माँ...नाना जी…"
युवराज ने इसी नाम की रट कितने भाव से लगा कर रखी थी यह वो ही जानते थे। लेकिन वोह कुछ कह पाते , उससे पहले ही उनके पिता जी अपने सिंहासन से उठ खड़े हुए और अपनी रूखी आवाज में बोले…
"युवराज अभिवर्त! कम से कम इतना तो याद रखें के अपने बड़ों से जब भी मिला जाता है तो उनके पांव छूकर ही उसने आशीर्वाद लिया जाता है, हमें आपने उनका स्वागत तो क्या ही करने दिया खुद भी, न पाव छुए, न नमस्कार किया। क्या कहेंगे आपके नाना नानी? के हमने युवराज को आदर सत्कार नही सिखाया?"
उनके यह शब्द सुनकर युवराज ने अपने कदम पीछे लिए, अपने नाना नानी से कुछ दूरी बनाई और सर झुका कर खड़े हो गए। उदासी उनके मन को काट रही थी।
"बस चंद्रप्रकाश जी! हम यहाँ अपने नवासे से मिलने के लिए आए हैं, अब ये उनकी इच्छा वोह हमारा स्वागत हमसे गले मिलकर करे या हमारे पांव छूकर। उनका हम पर और हमारा उन पर पूर्ण अधिकार है। सालों बाद भी आपका रूखा बर्ताव बिल्कुल वैसा ही है। हम ये देख कर बिल्कुल भी चकित नहीं हैं।"
महारानी ने अपनी बुलंद आवाज़ से राजा चंद्रप्रकाश को उत्तर दिया, और उनके आगे चंद्रप्रकाश मौन रह गए। वोह जितने उनसे उम्र में छोटे थे उतने ही ओहदे में भी और अपनी मंशा के चलते उन्हें बेहतर यही लगा के वोह महाराज और महारानी को क्रोधित न ही करें।
" अभिवर्त…"
वोही महारानी जिनकी एक आवाज़ से पूरा महल चौंक उठा था, ममतामई भाव से अपने लाडले नवासे से बोली। युवराज ने शर्मसार नज़रों से उनकी ओर देखा।
" आज आपको अठारह वर्षों के बाद, मिलकर हमें अत्यंत प्रसन्नता हुई है, हम आपको समझा नही सकते उतनी। अब आप दूर ही खड़े रहेंगे या अपने नाना—नानी से मिलेंगे भी? आइए अपने नाना जी के साथ खड़े हों।"
महाराजा योगेंद्र प्रताप जी ने एक मंद मुस्कान से युवराज को इशारा करते हुवे अपने पास पुकारा और युवराज जो अपनी खुशी में फूले नहीं समा रहे थे दौड़ते हुवे उनके पास जा खड़े हुवे।
महाराज ने प्रसन्नता से युवराज अभिवर्त की पीठ थपथपाई मानो उन्हें आश्वासन दे रहे हों के उनके रहते युवराज को किसी से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं, भले ही वोह उनके पिता क्यों न हों।
"आप लोग लंबा सफर तय करने के पश्चात यहां पहुंचे हैं, आप पहले थोड़ा आराम कर लीजिए फिर जैसे यहां वक्त बिताना चाहें बिता सकते हैं।"
" जी नाना जी, नानी मां आपको हम खुद अतिथि भवन की ओर लेकर चलते हैं, चलिए।"
भवन में ठीक उसी समय सेनापति आ पहुंचे, उन्होंने सर झुकाए, हाथ जोड़ कर सबको प्रणाम किया। राजा चंद्रप्रकाश ने सेनापति को इशारे से समझाया के वोह जो भी संदेश लाए हैं, महाराज महारानी और युवराज के जाने के पश्चात ही सुनाएं।
जैसे ही युवराज अपने नाना नानी के साथ अतिथि भवन की ओर निकले, सेनापति ने चिंता व्यक्त करते हुवे महाराज से कहा
"महाराज, हमें भय है के युद्ध को अब किसी भी स्तिथि में रोका नहीं जा सकता। "
राजा परिस्थिती को भांप तो गए थे लेकिन उनके पास इसका कोई हल नहीं था। वह कुछ देर सोच में पड़े रहे और अंततः उन्होंने जवाब देते हुवे कहा
"तो युद्ध की तैयारी शुरू कीजिए सेनापति, इतने सालों से जो होनी हम सब टालने का निरंतर प्रयास करते आए हैं वोह किसी भी हालत में रुकना नही चाहिए।"
" तो आखिरकार वर्षों पुरानी भविष्यवाणी सच हो ही गई। अ—मेरा मतलब है सच होने ही वाली है समझो, क्यों महाराज?"
राजा चंद्रप्रकाश पर तंज कसते हुवे उनके मंत्री सुवर्ण बोले और राजा गुस्से से आग बबूला हो उठे, उनके आत्मसम्मान को आघात पहुंचा।
" नहीं! हमें कोई विश्वास नहीं उस भविष्यवाणी पर। जिह्वा से निकले हुवे चंद शब्द यह तय नहीं कर सकते के हम अच्छे राजा हैं या नहीं!"
मंत्री सुवर्ण को बिलकुल परवाह नही थी की उनकी कही बात का नतीजा क्या हो सकता है और वो महाराज से एक बार फिर बोले।
" जी महाराज। आप की वाणी सत्य है, आपके जैसा राजा तो युगों योगों के बाद किसी राज्य को नसीब होता है, पर दुखद बात यह है महाराज के आने वाले युद्ध के लिए हमारे युवराज अभिवर्त, बिलकुल त्यार नहीं हैं और शायद होंगे भी नहीं।"
सुवर्ण ने यह कहकर अपना सर महाराज के सामने झुका लिया। राजा चंद्रप्रकाश की चिंता की कोई सीमा न थी, आज तक युवराज ने जितने भी सैन्य अभ्यास किए उनमें युवराज कभी सफल न हुवे, और यही बात राजा को अक्सर शर्मिंदा महसूस करवाती, और पिता पुत्र का रिश्ता जिसमे सदा से ही दूरियां रही थी वोह और बढ़ती रही।
नमस्कार सभी को। तोह कैसा लगा आपको कहानी का पहला भाग? मुझे बताइएगा ज़रूर। मैं जल्द मिलूंगी आप सबको कहानी के दूसरे भाग में तब तक के लिए धन्यवाद।
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